हिन्दी का जन्म एक प्रक्रियात्मक क्रम

हिन्दी का जन्म किसी एक क्षण पर नहीं हुआ; यह एक क्रमिक भाषिक विकास (diachronic development) का फल है। मुख्य रूप से तीन चरणों को देखा जाता है—

1. संस्कृत (१२वीं शताब्दी पूर्व) — शास्त्रीय व वैदिक संस्कृत का परिष्कृत लेखन तथा क्रियात्मक ढाँचा।

2. प्राकृत (उत्तरैतिक लोकभाषिक रूप) — संस्कृत के बोलचाल रूपों का साधारण-जन में फैलना; क्षेत्रीय रूप भिन्न।

3. अपभ्रंश → प्रारम्भिक हिन्दी — प्राकृत से और भी सरल होते हुए अपभ्रंश के माध्यम से स्थानीय बोलियों का उद्भव और फिर लगभग 10वीं–12वीं शताब्दी के आसपास हिन्दी के प्रारम्भिक रूप का स्थायित्व।

इस क्रम में भाषाई, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों का संयोजन रहा — संस्कृत का शैक्षिक/धार्मिक उपयोग, जनजीवन की बोली की आवश्यकताएँ, क्षेत्रीय संपर्क और साहित्यिक प्रयोजन।

संस्कृत से प्राकृत तक — प्रमुख परिवर्तन (सैद्धान्तिक अवलोकन)

समय-रेखा— वैदिक और शास्त्रीय संस्कृत का प्रमुख काल प्राचीन है; प्राकृत की प्रधानता लगभग दूसरी-छठी शताब्दी ई.पू./ई.स्व. के बाद तक मानी जाती है (क्षेत्रानुसार भिन्न)।

भाषिक परिवर्तन (मुख्य बिंदु)—

  • व्याकरणिक सरलीकरण— संस्कृत की जटिल विभक्ति-प्रणाली और धातु-रूपों में सरलता आई — बहुवचन/एकवचन/विभक्ति के कई रूप सामान्य बोली में गिरने लगे।
  • ध्वन्यात्मक परिवर्तन— कठोर व्यंजन-समूह व संयुक्ताक्षरों का सरल होना; स्वर-परिवर्तन और संधि-रूपों का मुक़ाबला बोलचाल में परिवर्तित होना।
  • शब्द-रूपों का संक्षेप— दीर्घ और बहुपद शब्द छोटे, अधिक उपयोगी रूपों में बदलने लगे।
  • क्षेत्रीय विविधता का अभिवृद्धि— शौरसेनी, मागधी, महाराष्ट्री आदि अलग- अलग प्राकृत रूप विकसित हुए जो अलग-अलग प्रदेशों के बोलियों के पूर्वज बने।

उदाहरणात्मक संकेत (सामान्य रूप से उद्धरण के लिये)— संस्कृत के कुछ शब्द प्राकृत में संक्षिप्त या स्वरष्ठ रूप में दिखाई देते हैं; (यहां उद्धरणों में मतभेद परंपरागत भाषावैज्ञानिक स्रोतों में मिलते हैं — अतः उदाहरणों को अधिकतर सामान्यीकृत रूप में ही रखें)।

प्राकृत से अपभ्रंश — सरलीकरण की अगली सीढ़ी और साहित्यिक प्रसार

समय-रेखा— लगभग 7वीं–10वीं शताब्दी के बीच प्राकृत से अपभ्रंश का संक्रमण स्पष्ट होता है।

मुख्य गुणधर्म और अधिक सरलीकरण— अपभ्रंश में संस्कृत के कई शेष व्याकरणिक चिन्ह और पद-रूप टूट गए; धातु-आधारित जटिल संयोजन स्थानीय उच्चारणों में बदल गए।

लोककथा एवं धर्मग्रन्थों में उपयोग— जैन और बौद्ध साहित्य का अधिकांश हिस्सा प्राकृत/अपभ्रंश रूपों में था — इससे जनभाषा का साहित्यिक आधार मजबूत हुआ।

शब्दरचना का लोककेंद्रित होना— शब्दों के अर्थ-रेंज और प्रयोजन लोकजीवन के अनुरूप ढलने लगे।

भाषिक परिणाम— अपभ्रंश वह मध्यवर्ती मंच है जिससे क्षेत्रीय बोलियाँ/उपभाषाएँ निकलकर आगे हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के पूर्वज बन गए। यह हिन्दी के 'सीधा जनक' के रूप में समझा जाता है क्योंकि अपभ्रंश के अनेक रूप आधुनिक हिंदी के तद्भव (उत्पन्न) शब्दों में रूपांतरित हुए।

अपभ्रंश से हिन्दी — आरम्भिक हिन्दी का उद्भव (काल और क्षेत्र)

काल— आधुनिक भाषावैज्ञानिक व साहित्यिक साक्ष्य यह संकेत करते हैं कि अपभ्रंश से हिन्दी के प्रारम्भिक रूप का स्थायित्व लगभग 10वीं–12वीं शताब्दी के आसपास दिखाई देता है। यह सीमाएँ क्षेत्र और प्रमाण के आधार पर थोड़ी बहुत चलनशील हैं, पर सामान्य सहमति यही है कि मध्ययुगीन भारत में 10वीं–12वीं शताब्दी से हिंदी रूपों का लेखन व साहित्यिक प्रयोजन मिलने लगा।

क्षेत्रीय संदर्भ— गंगा–यमुना का दोआब, उत्तर-भारतीय मैदान, राजस्थान के कुछ भाग, ब्रज क्षेत्र — इन क्षेत्रों में विकसित स्थानीय बोलियों (अवधी, ब्रज, खड़ीबोली का प्रारम्भिक रूप, राजस्थानी-जनक बोलियाँ, भोजपुरी-पूर्वज) ने हिन्दी के आरम्भिक स्वरूप को मिलकर घड़ा।

आरम्भिक हिन्दी का ध्वन्यात्मक, व्याकरणिक और शब्द-रचनात्मक स्वरूप

यहाँ हम आरम्भिक हिन्दी (proto-Hindi/early Hindi) की भाषिक विशेषताओं को सारगर्भित रूप में देखते हैं — जिनके आधार पर बाद की हिन्दी की पहचान बनी।

(अ) ध्वन्यात्मक परिवर्तन (phonology)

  • संयुक्ताक्षर/क्लस्टर का टूटना — संस्कृत के कठिन व्यंजन समूह बोलचाल में सरल बन गए (उच्चारण में सहजता आई)।
  • स्वर-परिवर्तन — दीर्घ और स्वरों का परिवर्तन, संधि के सरल रूप; स्वर-ह्रास जहाँ आवश्यक था।
  • उच्चारणीय स्थानीयता — क्षेत्रीय उच्चारणों का प्रभाव; उदाहरणतः ब्रज तथा अवधी में स्वर-शैली अलग दिखती थी।

(ब) व्याकरणिक परिवर्तन (morphology & syntax)

  • विभक्ति से पोस्टपोज़िशन की ओर झुकाव — संस्कृत की समृद्ध विभक्ति प्रणाली धीरे-धीर साँचे बदलकर पोस्टपोज़िशन (उपसर्ग-रहित परोक्ष प्रस्तुति) के रूप में विकसित हुई — यह हिन्दी के बाद के डेवलपमेंट का मूल था।
  • क्रिया-वर्गों का सरल होना — जटिल संस्कृत क्रियातत्त्वों का सहज रूप (कम्पोजिट कटौती, सहायक क्रियाओं का आरम्भ)।
  • वाक्य-रचना में लचीलापन — शब्द-क्रम में अधिकता और स्थानीय बोलियों के प्रभाव के कारण वाक्य-रचना सरल व प्रायोगिक हुई।

(स) शब्दसंग्रह (lexicon)

  • तत्सम (तत्त्वतः संस्कृत-निरपेक्ष रूप) — शास्त्रीय/शिक्षित स्तर पर संस्कृत शब्द यथावत् उपयोग में रहे (उदा. धर्म, सत्य आदि)।
  • तद्भव (संस्कृत से रूपान्तरित लोकरूप) — अपभ्रंश/प्राकृत माध्यम से उत्पन्न शब्द (उदा. ग्राम → गाँव का सामान्य तद्भव परिवर्तन)।
  • देशीय शब्द (देसी तत्त्व) — स्थानीय बोलियों, जनजीवन के शब्द, कृषि व लोकजीवन से जुड़े पद।

→ इन श्रेणियों का मिश्रण आरम्भिक हिन्दी का पारिभाषिक चिन्ह बन गया — जहाँ उच्चरित-शिक्षित शब्द (तत्सम) और जनभाषिक तद्भव एक साथ पाए जाते थे।

लिपि तथा लेखन परंपरा — आरम्भिक लिखित प्रमाण

लिपि का विकास (संक्षेप)— देवनागरी/नागरी का विकास प्राचीन ब्राह्मी-गुप्त-आधारित लिपि परम्परा से हुआ। प्राकृत व अपभ्रंश ग्रंथ अनेक प्रकार की ब्राह्मी-आधुनिक लिपियों में लिखे गए। आरम्भिक हिन्दी साहित्य व प्रपत्रों में भी प्रादेशिक लिप्यंतरण के आवरण मिलते हैं — जैसे नागरी के आरम्भिक रूप, लिपि-रूपांतर और स्थानीय हस्तलिपियाँ। बाद के समय में देवनागरी मानकीकृत हुई, पर आरम्भिक चरण में लेखन रूपों में विविधता थी।

लेखन-साक्ष्य— आरम्भिक हिन्दी के लिखित साक्ष्य (हस्तलिपि/मूल ग्रंथ/पाण्डुलिपि रूप में) 11वीं–13वीं सदी के आसपास के ग्रंथों में मिलते हैं — परन्तु इनका स्थायित्व और मौलिकता पर सैद्धान्तिक बहसें विद्यमान हैं (क्योंकि बाद के पाण्डुलिपि संशोधनों से मूल रूप बदल सकता है)। इसलिए लिखित प्रमाणों का विश्लेषण शैलीगत व भाषायी परीक्षणों पर आधारित होता है।

आरम्भिक साहित्यिक प्रमाण और उनकी भूमिका (संक्षेप)

साहित्यिक आरम्भिक संकेत— 11वीं–13वीं शताब्दी के आस-पास कुछ रचनाएँ जिन्हें पारंपरिक रूप से आरम्भिक हिन्दी या उसके निकट माना गया है, उन पर भाषावैज्ञानिक ध्यान केंद्रित किया गया है। इनमें कुछ लोककथात्मक रचनाओं, वीर-गाथाओं और प्रारम्भिक रासो-परम्पराओं के अंश मिलते हैं। उदाहरण के रूप में पारम्परिक रूप से चंदबरदाई की पृथ्वीराज रासो का नाम लिया जाता है — पर इस ग्रन्थ का ऐतिहासिक-लेखनकाल और कई संस्करणों के कारण शोधन और बहस आवश्यक है।

जैन/बौद्ध प्रभाव— जैन और बौद्ध धार्मिक साहित्य ने प्राकृत/अपभ्रंश रूपों में लोक–उपयोग की परंपरा दी, जिससे हिन्दी के साहित्यिक विकास के पूर्वार्जन में स्थायित्व आया।

→ ध्यान रहे– यहाँ उद्देश्य केवल आरम्भिक साक्ष्यों का संकेत है — गहन पांडुलिपि-आधारित प्रमाण-शोध तथा तारीख़ांकन (dating) में विद्वानों के बीच सूक्ष्म मतभेद रहते हैं; पर समग्र दृष्टी से 10वीं–12वीं शताब्दी को आरम्भिक स्वरूप के लिये निर्णायक माना जा सकता है।

क्षेत्रीय बोलियों की भूमिका — आरम्भिक हिन्दी का जनन

हिन्दी कई स्थानीय बोलियों के संघ से बनी; आरम्भिक हिन्दी का स्वरूप इन बोलियों का मिश्रण था। संक्षेप में प्रमुख योगदानकर्ता बोलियाँ और उनका प्रभाव—

  • अवधी— गंगा–यमुना क्षेत्रों की बोली; बाद में हिंदी के कुछ महत्त्वपूर्ण साहित्यिक रूपों में इसका प्रभाव (विशेष रूप से कथात्मक रचनाओं में) देखा गया।
  • ब्रजभाषा— मथुरा-आस-पास की बोली; भक्ति-साहित्य में इसका ऊँचा स्थान।
  • खड़ीबोली (प्रारम्भिक)— दिल्ली-मण्डल की बोली; बाद में आधुनिक मानक हिन्दी के विकास के लिये आधार बनी।
  • राजस्थानी-पूर्वज, भोजपुरी-पूर्वज इत्यादि— लोककथाएँ, लोकगीत व क्षेत्रीय शैली में योगदान।

इन बोलियों के स्थानिक व सामाजिक प्रयोगों ने हिन्दी के आरम्भिक रूप में विविधता, शैलीगत विकल्प और शब्दभंडार उपलब्ध कराया। यही मिश्रण आगे चलकर हिन्दी के लचीले, बहु-स्तरीय रूप का आधार बना।

सामाजिक–सांस्कृतिक कारण जो आरम्भिक हिन्दी को बढ़ावा देते हैं।

आरम्भिक हिन्दी के उद्भव में कुछ सामाजिक व सांस्कृतिक तत्त्व निर्णायक रहे—

  • जनसम्पर्क की ज़रूरत— शासन-प्रशासन, व्यापार और लोकजीवन में ऐसी भाषा की आवश्यकता जो आम जनता को समझ में आये — संस्कृत इस हेतु उपयुक्त नहीं थी।
  • धार्मिक प्रवचन व लोकउपदेश— जैन-बौद्ध उपदेश, स्थानीय धर्मोपदेश और लोकभक्ति ने स्थानीय भाषा को साहित्यिक रूप देने का अवसर दिया।
  • सामाजिक संवाद की समृद्धि— मेल–मिलाप, यात्राएँ, वाणिज्यिक संपर्क, और क्षेत्रीय आदान-प्रदान से भाषा में प्रक्रियात्मक परिवर्तन का दायरा बढ़ा।

इन कारणों ने मिलकर भाषिक रूपान्तरण को गतिशील बनाया — परिणामस्वरूप संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और फिर अपभ्रंश से आरम्भिक हिन्दी का क्रम हुआ।

सारांश और निचोड़ (निष्कर्ष)

  • प्रक्रियात्मक जन्म— हिन्दी का जन्म एक प्रक्रियात्मक, चरणबद्ध और सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से प्रेरित प्रक्रिया के द्वारा हुआ — यह संस्कृत → प्राकृत → अपभ्रंश → आरम्भिक हिन्दी की क्रमिक शृंखला का परिणाम है।
  • काल— वर्तमान भाषावैज्ञानिक व साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर आरम्भिक हिन्दी के लिखित व बोलीगत रूप लगभग 10वीं–12वीं शताब्दी के आसपास स्थिर रूप में दिखते हैं।
  • भाषिक विशेषताएँ— आरम्भिक हिन्दी में व्याकरणिक सरलीकरण, विभक्ति-प्रणाली का तिरस्कार/रूपांतरण, ध्वन्यात्मक सरलीकरण और तद्भव–तत्सम शब्दों का मिश्रण प्रमुख थे।
  • साहित्यिक आधार— जैन/बौद्ध प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य तथा क्षेत्रीय रासो/काव्य/लोककथाएँ आरम्भिक हिन्दी के साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध कराती हैं — पर हस्तलिपि संशोधन व संस्करणीय विविधताओं के कारण प्रमाणों की विवेचना सावधानी से करनी पड़ती है।
  • क्षेत्रीय विविधता का प्रभाव— अवधी, ब्रज, खड़ीबोली व अन्य क्षेत्रीय बोलियाँ मिलकर हिन्दी की नींव बनीं — यही आरम्भिक हिन्दी की बहुमुखी और जनकेंद्रित प्रकृति की वजह थी।