बहादुर शाह जफर की दर्द बयां करती कविता
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे-नापायदार में
बुलबुल को बागबाँ से न सय्याद से गिला
किस्मत में कैद लिखी थी, फ़सले बहार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिले-दागदार में
इक शाखे-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमाँ
काँटे बिछा दिए हैं दिले-लालहज़ार में
उम्र-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दो इंतज़ार में
दिन जिंदगी के खत्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएँगे कुंजे-मज़ार में
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए
दो गज जमीन भी न मिली कूए-यार में
बहादुर शाह ज़फ़र और उनकी कविता का ऐतिहासिक संदर्भ
बहादुर शाह ज़फ़र (1775–1862) भारत के अंतिम मुगल सम्राट थे। 1857 की क्रांति (पहला स्वतंत्रता संग्राम) के समय उन्हें विद्रोह का प्रतीक और नेतृत्वकर्ता बनाया गया।
1857 की क्रांति के बाद विद्रोह असफल हुआ। अंग्रेजों ने बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ्तार कर लिया, उन पर मुकदमा चलाया और दिल्ली से निर्वासित करके रंगून (वर्तमान यांगून, म्यांमार) भेज दिया।
निर्वासन और अकेलापन ज़फ़र रंगून में बेहद कठिन परिस्थितियों में कैद रहे। वहाँ न अपना देश था, न अपनों का साथ। उनके अंतिम दिन ग़रीबी, लाचारी और तन्हाई में बीते।
निष्कर्षतः बहादुर शाह ज़फ़र द्वारा लिखित यह कविता 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद उनकी भावनाओं को दर्शाती है। इस कविता में, ज़फ़र अपनी पीड़ा, निराशा और अपनी मातृभूमि से दूर होने का दर्द व्यक्त करते हैं।
कविता का भाव
यह कविता उनके जीवन के अंतिम दौर की व्यथा, बेबसी और हताशा का प्रतीक है।
उन्हें लगा कि अब दिल उजड़े हुए देश में नहीं लगता। किस्मत ने ही उन्हें कैद और तन्हाई दी। उन्होंने जीवन के सिर्फ चार दिन माँगे थे, पर वे भी इंतज़ार और हसरतों में बीत गए। अंततः उन्हें अपने ही वतन में दफ़न होने की जगह भी न मिल सकी और पराई धरती पर उनकी मज़ार बनी।
कविता का ऐतिहासिक महत्व
यह कविता सिर्फ व्यक्तिगत पीड़ा नहीं है बल्कि उस युग का प्रतीक है, जब भारत की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई हार गई और अंतिम मुगल सम्राट विदेशी ज़मीन पर बेगानेपन का शिकार हुआ।
कविता का सरल हिन्दी अनुवाद
दिल मेरा अब इस उजड़े देश में नहीं लगता,
आख़िर किसका साथ टिकता है इस अस्थायी दुनिया में?
बुलबुल को न तो माली से शिकायत है, न शिकारी से --
क्योंकि उसकी तक़दीर में तो बसंत ऋतु में ही कैद लिखी थी।
इन तमन्नाओं से कह दो कि कहीं और जा बसें,
क्योंकि इस घायल दिल में अब जगह ही कहाँ बची है।
फूल की एक डाली पर बैठकर बुलबुल तो खुश है,
लेकिन मेरे दिल के बाग़ में तो काँटे ही काँटे बिछे हैं।
ज़िंदगी की लंबी उम्र माँगकर सिर्फ़ चार दिन पाए थे --
दो इच्छाओं में गुजर गए और दो इंतज़ार में।
अब ज़िंदगी के दिन पूरे हो गए, शाम ढल चुकी है,
कब्र के कोने में पाँव पसारकर सो रहूँगा।
कितना बदनसीब है ‘ज़फ़र’ कि दफ़्न होने के लिए भी,
अपने वतन की धरती में दो गज़ ज़मीन तक न मिली।
कविता का केन्द्रीय भाव
यह कविता बहादुर शाह ज़फ़र की व्यक्तिगत और ऐतिहासिक त्रासदी का एक मार्मिक चित्रण है।
उजड़े दयार (उजाड़ घर)— उनके टूटे हुए साम्राज्य, विशेष रूप से दिल्ली की स्थिति का प्रतीक।
क़ैद और फ़स्ले-बहार— बुलबुल (ज़फ़र) और बागबाँ (अंग्रेज) का रूपक।
दफ़्न के लिए दो गज़ ज़मीन न मिलना— उनकी अंतिम सबसे बड़ी पीड़ा, क्योंकि उन्हें अपने ही वतन में दफ़न नहीं किया जा सका।
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